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Showing posts from March 14, 2015

कहानी धरती अम्बर की

कहानी धरती अम्बर की       एक रोज़ जब अम्बर की  धरती से मुलाक़ात हूई।  मंद -मंद मुस्कान लिये    धरती को देख कर बोला,    थकती नहीं मुझे तकते हुए  बाहें फैलाये कब से खड़ा हूँ  तुम देखती नहीं हँसते हुए।  दो पल वो चुप रही फिर बोली  पेड़ नाचते है, फूल खिलते है   क्या देखा नहीं मुझे हँसते हुए  क्षितिज के पास अम्बर हंसा  हल्की सी फिर से  फ़ुहार  उड़ी।   तेरा मेरा फिर ये नाता क्या है उसने  हैरान  हो  फिर से  पूछा। ना जाने  कैसी  वो   बयार चली धरती कुछ  भी  ना  बोल  सकी।  मैं बंधी रही हूँ चाँद और सूरज से  तुम बंधे निशा ,संध्या , तारों  से  तुम जब बरसाते हो बादल अपने मेरे घर आँगन चमक से  जाते  है  तुम मुझे देख  कर  मुस्कुराते  हो मैं तुम्हे देख कर खुश हो जाती हूँ  नहीं जानती क्या है नाता तुम से  बंधू  ,सखा, सहोदर , गुरु, प्रेमी हो  तुममें  सारा संसार  दिख जाता है  मित्रवत व्यवहार तुम्हारा भाता है  ना पूछना मित्र कौन सा ये नाता है               आराधना   तुम में हरपल ये क़ायनात भी 

निपट लूँगी।

  सुबह होने से  पहले  ही  मैं अंधेरो से निपट लूँगी। मेरे दर के तूफानों सुनो  मैं तुम से भी निपट लूँगी।  ना करा  अहसास   मुझे  तू अपने खुदा  होने  का।  ये  अलग  बात  है  मेरी  कल  तुझसे निपट लूँगी।  आराधना                                

पीली पत्तियाँ

आते जाते सौरभ ,सुगंध से मन के कुछ वातायन खुले हरी भरी इस फुलवारी में नित नए पल्लव हार खिले सरल नहीं यू फुलवारी में रोज ही मुक्ता हार मिले कंटकों को ही अपना कर  पुष्पों का ये वरदान मिले झरझर गिरते अश्रु से ही सींची थी ये मैंने फुलवारी अपनी -अपनी कह कर ही प्रेम -सुधा  सब बरसा डाला इतने पर भी संतुष्ट नहीं मैं अन्तस से पुछू ये ही हर बार इतना सब होने पर अबतक  क्यू प्रेम का काव्य रचा नहीं झड़ते पत्ते हंस कर यू बोले क्यों स्नेह मृत्यु से  करा नहीं मिटना ,बनना विधि तलक था पर उसने जब हार ना थी मानी फिर क्यू  इतना तू  इतराती है तू  है इतनी  क्यों री  अभिमानी मैंने केवल सुख का, व्यापार किया दुःख ,दुविधा से दूर रही जब में किसका ,कब कैसे उद्धार किया चली सदा ही  निज  की चाहत में औरो का कब मैंने सम्मान किया देखा है रवि को क्या यू  बस रोते फूलों ने फिर से नव झंकार किया नव किसलय को सहला कर बस पत्तों ने  सहर्ष प्राणों का दान किया                                     ,                       सरल नहीं है विदा यू होना अपनों से धीरे से सिखला कर मुस्कुरा कर  विदा हो गई स

नज़्म बेवज़ह नहीं

कोई वादा नहीं फिर भी क्यू  तेरा इंतज़ार करती हूँ अपनी तन्हाइयों में अक्सर दिल कि बात करती  हूँ। बेवज़ह तो नहीं ये सब बातें,या  यू ही बेक़रार रहती हूँ जाते हुये से इस पल में ,नींद से ख़्वाब क्यू मैं  चुनती हूँ। कोई सुन ले ना ज़बां से बस उफ ,होठो को सिये रहती हूँ चुप हूँ ख़ामोश हूँ मैं ,अपनी आँखों से ही मैं बात करती हूँ। आराधना