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Showing posts from April 2, 2015

इल्ज़ाम

  एक मज़बूरी कितनो को रुला देती है  कभी सवाल कभी जवाब सुना देती है रुठते वक़्त में अपना सा बना देती है  कांपते होठो से  नाम तेरा ही लेती  है माना गम से दो चार करा भी देती है कितने इल्ज़ाम दिल में ये उठा देती है  एक  बे -नूरी पे कालिया खिल जाती है ये बात दिवार दर दिवार हुई क्यू जाती है दिल के हालात का रोना क्या रो जाती है इस जहां को क्यू तू दीवाना बना जाती है

क्या पा लेती

क्या पा लेती -------------------------------- मैं जी तो क्या जी लेती अपनी आस ही जी लेती चाँद तुझे ही  निहार लेती तृषा चातक कि पी लेती भर्मित हो जीवन जी लेती ऐसे जी कर क्या पा लेती सुख का आधार पा लेती उर में बसे प्राण पा लेती अपने सपनों में जी लेती अपने ह्रदय को पा लेती आराधना 

सृजन

पीड़ से जन्म हुआ होगा  तब ही सृजन हुआ होगा  कपोल पर छलके तो होगे  रुदन में भी तो ये  ढ़ले होंगे  अवसाद मन में जब सहे होंगे  कातर हो अश्रु भी तो गिरे होंगे 

सपनें

रंग हीन गंध हीन जीवन में सब सपनें निस्सार हो गए।  क्यू चल -अचल जगत  प्रीत  के आँसू अब  व्यापार हो गए। नभ के पंक्षी जल -चर भी जैसे  नीरस और बेकार हो गये कैसे। ईश्वेर भी स्वर हीन  हो गए जैसे जग के कारोबार हो गए  हो  ऐसे। आराधना