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पीली पत्तियाँ

आते जाते सौरभ ,सुगंध से
मन के कुछ वातायन खुले
हरी भरी इस फुलवारी में
नित नए पल्लव हार खिले

सरल नहीं यू फुलवारी में
रोज ही मुक्ता हार मिले
कंटकों को ही अपना कर
 पुष्पों का ये वरदान मिले

झरझर गिरते अश्रु से ही
सींची थी ये मैंने फुलवारी
अपनी -अपनी कह कर ही
प्रेम -सुधा  सब बरसा डाला

इतने पर भी संतुष्ट नहीं मैं
अन्तस से पुछू ये ही हर बार
इतना सब होने पर अबतक 
क्यू प्रेम का काव्य रचा नहीं

झड़ते पत्ते हंस कर यू बोले
क्यों स्नेह मृत्यु से  करा नहीं
मिटना ,बनना विधि तलक था
पर उसने जब हार ना थी मानी
फिर क्यू  इतना तू  इतराती है
तू  है इतनी  क्यों री  अभिमानी

मैंने केवल सुख का, व्यापार किया
दुःख ,दुविधा से दूर रही जब में
किसका ,कब कैसे उद्धार किया
चली सदा ही  निज  की चाहत में
औरो का कब मैंने सम्मान किया

देखा है रवि को क्या यू  बस रोते
फूलों ने फिर से नव झंकार किया
नव किसलय को सहला कर बस
पत्तों ने  सहर्ष प्राणों का दान किया                                     ,                      
सरल नहीं है विदा यू होना अपनों से

धीरे से सिखला कर मुस्कुरा कर 
विदा हो गई सबसे पीली पत्तियाँ।




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राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना