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रेज़गारी


बात1976 की है, हम उन दिनों राम कृष्ण पुरम सेक्टर -6 में रहते थे। मुझे तो आज तक उस घर का नम्बर भी याद है, A 198 पास ही स्कुल था और स्कुल के सामने घर। बड़ी दीदी को 5 पैसे मेरी मझली दीदी को भी 5 पैसे और भाई और मुझे भी 5 पैसे रोज़ के मिलते थे। पांच पैसे मेरे हाथ में जैसे ही आए.में आइस बार लेने की सोची, बड़ी दीदी ने चुपचाप एक गुलक में डाल दिए। मझली दीदी को क़िताबे पढने में रूचि थी पर किराये पर भी किताब 25 पैसे में थी,सो उनके पैसे भी गुलक में गए भाई स्कूल पेदल आता जाता था सो उसके पाच पैसे भी गुलक में गए।
शाम तक 5 पैसे को हाथों में लेकर बैठी रही,क्या पाता बर्फ का गोला मिल जाए या राम जी की खट्टी -मिट्टी गोलियां,पर घर के आस पास कोई खोमचे वाला नहीं आया था। बड़ी दीदी 12 साल की थी मझली दीदी 9 साल की और मैं और भाई जुड़वाँ थे, 6 साल के। उस दिन लगा, काश बड़े होते तो मज़े से पैसे को जेब में रख कर गोला तो खा ही सकते थे।उस दिन वाला सिक्का क्या हर दिन ५ पैसे गुल्क पे मेहरबान हो गए। बड़ी दीदी ही सब में समझदार थी,उन्होंने कहा महीने भर बाद सब सब के पैसे इक्कठे हो जाएगे तब कुछ खरीदेगे , दीदी बड़ी थी उन की बात हम भाई बहनों के बीच ऐसे मानी जाती थी जैसे फौज़ में कमांडर की बात मानी जाती है। रोज़ गुल्क छलकती और हम खुश हो कर अपने सपनों के पंख लेकर उड़ जाते। महीना कुछ पाने की ख़ुशी में ही चला गया।
दीदी ने आकडा लगा कर बताया कुल 6 रूपये है। दीदी किराए पे चार किताब ले सकती थी। बड़ी दीदी अपने मन की डिश बना सकती और मैं खट्टी इमली ,बेग़म की उंगली ना जाने और क्या,पर
भाई चुप रहा क्या हुआ बबलू भैया, मैंने पूछा तो बबलू भाई रो पड़ा,उसके रोंने का कारण समझ
नही आ रहा था। दीदी ने शान्त कराया तो पता लगा , आज पापा का पर्स कट गया था बस मम्मी पापा को लेकर घर आई थी डिस्पेंसरी से, सब सन्न रह गए थे।आज वेतन मिला था, 
माँ रो रही थी पर शांत थी,क्यों अपने गहने बेच दूंगी पर भूखे पेट भगवान नहीं रहने देगा।
देखो ना पाकेट तो मारा ही उसने मुझे धक्का दे कर बस से नीचे भी गिरा दिया, पापा ने माँ को
अपना आधा प्लास्टर लगा सीना दिखाते हुए कहा।
चिंता है अब कैसे, हम चारो के हाथ से गुल्क छुट गयी ६ रूपए मझली दीदी ने माँ को दे दिए।
माँ आपको बड़ी दीदी ने बिना बताए शिखा दीदी के साथ बेठकर साडी फाल और क्रोस स्टिच से
कुछ और रूपये अभी मिले है--७० रूपये। ७६ रुपये बहुत नहीं थे, पर माँ ने उस दिन अपनी भी
रेज़गारी मिला दी जो पुरे ५० रूपये की थी । हिसाब लगाया गया 76 और ५० १२६ रुपए बन गयें थे फिर भी मेहनत की बचत वेतन से अधिक ना थी।
२५ -५० रुपए कम होना बड़ी बात थी फिर भी उस दिन हमारें पास संतोष धन था। वो महीना ज्यादा प्यार से कटा था। उसके बाद शायद ही बिलावजह हममें से कोई रोया होगा।
आराधना राय "अरु"

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

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