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दिन ढले तो रात मेरी रो जाती है

 गोया की ग़ज़ल हूँ खामोश सी रहती हूँ तेरे आस- पास हूँ मगर गुम सी रहती हूँ
दुखतर सा दुख लिए दो शीज़ा कहती हैं रात होते हीदिन की परेशनी है
दिन ढले तो रात मेरी रो जाती है,
जिंदगानी का सफर रो रो कर जीने वालो हँस से दाने चुगते है, मंटो की लिखी किताब हूँ .पाथेर पांचाली भ्रमकीताब हूँ य चंदरबरदाई की गाथा ऐ सनम बता कौन हूँ चंदकांता...............
घात की गहराई रोमियो- जूलियट............................\आराधना राय अरु

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना