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नज़्म,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गीत

गीत बहारों के नाम लिखती हूँ
मैं तेरा इंतज़ार करती हूँ
रोशनी कम ना थी मेरे दिल में
बस तेरा इंतखाब करती हूँ
सुरमई शाम जब भी आती है
 साथ  खुशबु  संग लाती है
लौट आएगी तेरे दामन में
बच कर ख़ुशी कहाँ जाने वाली है
मैं सजा लुंगी चाँद तारों को
नूर कि इबादत  कहाँ होने वाली है
रौशनी से कहाँ दिल खाली है
 किस्मत  की शाम ना ढलने वाली है
आराधना राय "अरु"

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राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना