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तो क्या होता



रदीफ- तो क्या होता- काफिया होता, क्वाफी-पता , अता,रहता आता खता
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इश्क ना होता बता तो क्या होता
खुदा सामने होता तो क्या होता
उनकी नज़रों से गिरा तो क्या होगा
संभल कर चलना आता तो क्या होगा
उसका जीना मरना मेरे संग होता
बन कर मुरीद रहता तो क्या होता
बंदगी उसकी तिजारत ना होती
होता वफ़ा का पता तो क्या होता
निगाहों का गिरना उठाना ना होता
उसका करम होता अता तो क्या होता
उस की अंजुमन से उठ जाते क्या होता
सह जाते "अरु" खता"तो क्या होता
© आराधना राय "अरु"

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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना