Skip to main content

कहानी- पहचान



कितनी सुंदर कहानी है, कृष्णा ने अख़बार ला कर दिखाया गोविन्द कुछ ना बोला, अनमना हो कर उसने अख़बार एक तरफ रख दिया । तुम भी तो लिखते हो तुम्हारा नहीं छप सकता, मुस्कुरा कर गोविन्द ने कहा छपते है मेरे नाम से उपन्यास पर ऐसे लोगो के जो होते ही नहीं। कृष्णा हँस कर बोली अच्छा मैंने तो नहीं पढ़े, अब इस के बाद गोविन्द क्या कहता...........खुद लिखो और बाद में किसी और के नाम से पढो, कितना अजीब है, आखिर छदम नाम से लिखने के पैसे भी तो मिलते है।

आज भी याद है एक कविता लिखी थी, फिर रात भर उसे गुनगुनाता रहा था, नहीं मालूम था कि पहली मंजिल पर रहने वाली कोयल सुन कर लिख रही है। अगले दिन कालेज में कविता हिंदी - विभाग में सम्मिलित करवा दी गई, पर करीब आधे - घंटे बाद मुकेश जी ने बुलाया, गोविन्द अचकचाया हुआ सा जब सामने पहुँचा तब कोयल कि कविता आगे कर मुकेश जी मुस्कुरा दिए," ये कह रही है कविता इस की है"

", दोबारा लिखवा ले इससे अच्छी लिख डालूँगा", गोविन्द ने पास से ही कलम उठाया और कागज़ पर लिखना शुरू कर दिया । दोबारा लिखी कविता पहले से कही ज्यादा अच्छी थी, मुकेश जी चुप रहे, कोयल के ख़िलाफ सबूत नहीं है पर मुझे दुःख है कि आज तुम ने एक तरह से उस का साथ दिया ।.

बात आई गई हो गई, कोयल को सिर्फ मुस्कुरा कर बैठने के लिए लड़कों का हुजूम चाहिए  था ,पर जिनको मालूम था वो कभी कोयल कि इज्ज़त नहीं कर पाए।.
ये बात अलग थी कि गोविन्द अभी भी किसी प्रकाशक के  यहाँ छद्म नामधारी लेखक के
रूप में लिख रहा था और कल हीउसने एक कहानी अपनी दोस्त कि पत्नी के लिए लिखी,कभी कोई तो दिन होगा जब उसकी लिखी कहानी कविता उसकी भी होगी, क्योकि चोरी कर खाने पर तो माँ घर में  डांटती थी, चोरी का कभी खाया ही नहीं ।.

कितनी देर तक इसी सोच में बैठा रहा थोड़ी देर बाद कृष्णा ३० हज़ार रुपये ले आई.....
"कहीं से शुरुआत करनी होती है इसबारआप के अपने नाम से किताब छपेगी"...गोविन्द ने कृष्णा कि तरफ देखा ..उसकी आँखों में आँसू थे.... अब बात रूपये पैसे कि नहीं थी पहचान की थी।.दूसरों के नाम से लिखते -लिखते उसे लगा कि वो भी कोई और ही है।.

आराधना राय "अरु"

Comments

Popular posts from this blog

नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना