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मंज़र देखा



gugal ke sojany se


मंज़र देखा 
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बेबसी में आस का मंज़र देखा जगह धुँआ -धुँआ सा देखा
आँख में आँसू सा देखा, हर शक्स सहमा हुआ सा देखा
रात के गहरे सन्नाटे में , जहरीली हवा के साये को देखा
सिहरता -कांपता सा मंज़र मौत कि आगेश में लिपटा देखा
उमर कट गई अँधेरे में उन्हें इक रौशनी के लिए तरसते देखा
तमाम उम्र कफस में रह कर बरहा हमने उजालो की ओर देखा
दफ़न मिट्टी में दबी लाशों का अम्बार लगा कर बस तमाशा देखा
जान पर खेल कर इंसान हर तरफ रोता हुआ पूरा -शहर ही देखा
काँपती रूह थी "अरु" लाचारियों का सुबह तक अजब दौर भी देखा
आराधना राय "अरु"


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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना