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तलबगार




       ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है
       हम सा  कोई तेरा  तलबगार नहीं है

          हयात-ए-दहर कि वफा पहले दिखाइए
         दिल मेरा उन अब तलक बेज़ार नहीं है

           क़त्ल का उसने मेरे इंतज़ाम  ऐसा किया
           वो जानता था दिल मेरा उस्तुवार नहीं है
     
               मेरा दिल दिल ना था क्यों बेदर्द सा हुआ 
             अब लोगों कि बातों पे मुझे एतबार नहीं है
  
            माना के रोने पे  मेरा इख्तिआर नहीं है
           अब उसको मेरा पहले सा इंतज़ार नहीं है

             कहते है सितमगार मुझे लोग कुछ "अरु"
                उनके दिलों में अब बचा खूमार नहीं है

आराधना राय "अरु"
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इख्तिआर----- अधिकार
इंतज़ार--------- प्रतीक्षा
एतबार---------- विश्वास
उस्तुवार ------- कठोर, ताकतवर
बेज़ार--------- ऊबा हुआ, 
इंतज़ाम ------ जुटाना
ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार ----- प्रतीक्षा रत रहने कि ताकत
हयात-ए-दहर -----------स्वर्ग सा जीवन

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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना