नाकाम उम्मीदो का ज़नाज़ा लेकर
हसरतों को हम क्यू यू ढूँढ़ते ही रहे
बड़ी खामोशियाँ थी तेरे ही शहर में
कौन सा शोर था जिसे झेलते ही रहे
नादानियों के शहर में बर्बादी ये हुई
आवाज़ थी सभी कि जी तोड़ती रही
शीशे तमाम टूट गए मेरे ही मकान के
कौन सी शये थी"अरु" भटकती ही रही
आराधना राय
Rai Aradhana ©
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