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नज़्म -जंग सरहदों की

नज़्म -जंग सरहदों की 
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ज़ख़्म एक माँ ने भी खाया होगा 
दिल उसका भी तो टूटा  ही होगा 
बाप कि रूह भी कांप गई यू होगी 
कंधो पे जब बेटे को उठाया होगा 
किसी के सपने मरे सरहद पे कहीं
कहीं तो  आँख में आँसू आया होगा
शहीद  कह कर ही पुकारेगा ज़माना 
आसमां में कहीं वो मुस्कुराया होगा  
गोलियाँ चलती रहेंगी  सरहदों पे यू 
कोई उनका भी निशाना बनता होगा 
जंग कि कैफ़ियत नहीं होती है कहीं 
जो चलाई गई साध कर ही निशाना 
ऐसी गोलियों का धर्म होता है कहीं 
नहीं ये जानती है हिन्दू , मुसलमान 
इनकी भी सरहदे होती है क्या कहीं 
करुँ किस बात का ज़िक्र तुझसे "अरु "
जंग कैसी भी हो  कोई बेहतरी नहीं होती 
 आराधना राय 
 Rai Aradhana ©

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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना