नज़्म -जंग सरहदों की
------------------------------
ज़ख़्म एक माँ ने भी खाया होगा
दिल उसका भी तो टूटा ही होगा
बाप कि रूह भी कांप गई यू होगी
कंधो पे जब बेटे को उठाया होगा
किसी के सपने मरे सरहद पे कहीं
कहीं तो आँख में आँसू आया होगा
शहीद कह कर ही पुकारेगा ज़माना
आसमां में कहीं वो मुस्कुराया होगा
गोलियाँ चलती रहेंगी सरहदों पे यू
कोई उनका भी निशाना बनता होगा
जंग कि कैफ़ियत नहीं होती है कहीं
जो चलाई गई साध कर ही निशाना
ऐसी गोलियों का धर्म होता है कहीं
नहीं ये जानती है हिन्दू , मुसलमान
इनकी भी सरहदे होती है क्या कहीं
करुँ किस बात का ज़िक्र तुझसे "अरु "
जंग कैसी भी हो कोई बेहतरी नहीं होती
आराधना राय
Rai Aradhana ©
Comments