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नज़्म -जंग सरहदों की

नज़्म -जंग सरहदों की 
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ज़ख़्म एक माँ ने भी खाया होगा 
दिल उसका भी तो टूटा  ही होगा 
बाप कि रूह भी कांप गई यू होगी 
कंधो पे जब बेटे को उठाया होगा 
किसी के सपने मरे सरहद पे कहीं
कहीं तो  आँख में आँसू आया होगा
शहीद  कह कर ही पुकारेगा ज़माना 
आसमां में कहीं वो मुस्कुराया होगा  
गोलियाँ चलती रहेंगी  सरहदों पे यू 
कोई उनका भी निशाना बनता होगा 
जंग कि कैफ़ियत नहीं होती है कहीं 
जो चलाई गई साध कर ही निशाना 
ऐसी गोलियों का धर्म होता है कहीं 
नहीं ये जानती है हिन्दू , मुसलमान 
इनकी भी सरहदे होती है क्या कहीं 
करुँ किस बात का ज़िक्र तुझसे "अरु "
जंग कैसी भी हो  कोई बेहतरी नहीं होती 
 आराधना राय 
 Rai Aradhana ©

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गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना