सलीक़े से उठे बैठे बुज़ुर्गो की ये सब हिदायत थी
करीने से संभाले घर माँ की उम्र भर ये ताक़ीदें थी
नज़रों को झुका ही घर से वो बाहर ही निकली थी
कोई शीशा था चुभा ऐसा की मेरी जां ही निकली थी
लबों पे मुस्कराहट ऐसी कि दिलों को बहलाती थी
बड़ी ही कैफियत दे कर ख़ुद को सम्हाल लेती थी
न जाने क्यों गुलिस्तां को फिर किसी ने उजाड़ा था
माँ के आंसुओ ने रो कर दिल को फिर सम्हाला था
ना मालूम क्यूँ माशरा ये दुख्तर को ही यूँ रुलाता है
लड़कों को माशरा "अरु " कब ये सबक़ सिखलाता है
आराधना राय "अरु"
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माशरा- society , समाज़
दुख्तर - girl , लड़की
चुभन
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