Skip to main content

चुभन





सलीक़े  से उठे बैठे बुज़ुर्गो की ये सब  हिदायत थी
करीने से संभाले घर माँ की उम्र भर ये ताक़ीदें  थी

नज़रों  को झुका ही घर से वो बाहर ही निकली थी
कोई शीशा था चुभा ऐसा की मेरी जां ही निकली थी

लबों पे मुस्कराहट ऐसी कि दिलों को बहलाती थी
बड़ी ही कैफियत दे कर ख़ुद को सम्हाल लेती थी

न जाने क्यों गुलिस्तां को फिर किसी ने उजाड़ा था
माँ के आंसुओ  ने रो कर दिल को फिर सम्हाला था

ना मालूम क्यूँ  माशरा ये  दुख्तर को ही यूँ रुलाता है
लड़कों को माशरा "अरु " कब  ये सबक़ सिखलाता है
आराधना राय "अरु"
--------------------------------------------------------------
माशरा- society , समाज़ 

दुख्तर - girl  , लड़की 

चुभन 

Comments

Popular posts from this blog

आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना