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बेवज़ह






जाने कौन बात कर गया था कहीं
कैसा वादा था कर  गया था कोई

बेवज़ह ही सताता रह गया था कहीं
ख़ुदा भी मुस्कुरा कर रह गया कोई

वो कौन था तेरे मेरे दरम्यां ही कहीं 
हर बात पे रंज सताता रहा यू कहीं 

परखा हर कसौटी पे ज़माने ने कहीं 
मेरी अना ही टूटी उस परख में कहीं 

बड़ी हसरतों का ज़नाज़ा उठा यू कहीं 
खाक़ कर  "अरु" बातें बनाता रहा कहीं 

आराधना राय 
Aradhana © 
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बेवज़ह- Meaning less. बिना बात 
अना- -Self- respect,  स्वाभिमान 
दरम्यां-middle/midst/interval, in-between" in ... बीच में 


  

तेरी मानिंद ही है, झील सा गहरा नफ़ासत वाला 
इस ज़माने से ही अलग सा  कहीं वो दिखने वाला 



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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना