दफ़न हो गए शब्द जब कारखानों में
हसीन पल भी लगे अब क़ैदख़ानों से।
मयस्सर नहीं जिस्म को कफ़न भी
उगलती है आग कहीं भूख दोज़ख की
बंज़र सा इंसान क़ैद है अपनी तड़प में
ख़ुशी भी सिमट गई आज अपने घरों में
कौन सी सज़ा वो किस तरह पा जाता है
"अरु" वो शब्दों के मायने बदल जाता है
आराधना राय
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