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पर्यावरण पर कविता .....धरती का दुःख

पर्यावरण पर  कविता

धरती का दुःख
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वो बुरी शक्ल लिए मिलने आई थी
हाथों मैं कटोरा भीख का ले आई थी

रूखे -सूखे  केश लिए कहने आई थी
आहात थी दुःख साथ ही ले आई थी

आँखों में आँसू भर वो जब कराही थी
दर्द कि आवाज़ नहीं सुनाने आई थी

धरती थी अपनी पीड़ा बताने आई थी
कौन सी त्रासदी उसे नहीं रास आई थी

वृक्ष , वन , नदी सब का दर्द ले आई थी
बात  किसी कि समझ  में नहीं आई थी

प्रकृति का उपहास मनुज ने  उड़ाया था
विपति उपहार स्वरुप घर ले  आया था

जब धरा ने तीष्ण हथियार ही उठाया था
हाय किस्मत ने भी तो बड़ा ही रुलाया था

आदति जब श्रृंगार कर के स्वयं ही आई थी
मनुज तूझे  बलात्कार क्यों रास आया था
आराधना राय













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गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना