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बाबूल




बाबूल
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बचपन में तेरी उंगली को जब यू थाम चली थी
डगर उसी दिन से ये लंबी पहचान ही चली थी
तेरी बाहों में आ कर देखा ये पूरा ही संसार मैंने
बाबूल तेरे आँगन कि वो ही नन्हीं सी कली थी
तेरी बातों ने मेरी जुंबा को नए से शब्द ही दिए थे
जीवन से पहचान उसी दिन ही जा कर तो हुई थी
तेरे बिन अश्रु धारा कितनी यहॉ यू बहा कर चली हूँ
बगैर धुप का पौधा ही हूँ पेड़ मैं कब बन ही सकी हूँ
तेरी हर बात को आज भी मन में यू बसाए हुए हूँ
कठिन से जीवन कि डोर "अरु " ये भी थाम चली हूँ
आराधना राय

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राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना