वो फुटपाथ पर दिन भर सामान बेचती थी
रात भर जिस्म का वो भी बाज़ार देखती थी
इश्क़ के नाम पर वो पैगाम क्या भेजती थी
वहशियत का रोज़ वो इनाम खुद झेलती थी
हाथ -फैला हर रोज़ चन्द सिक्के देखती थी
अपने हाथ में वो क़िस्मत का नाम देखती थी
उम्र भर जाने किसकी वो क्यू राह देखती थी
जीने कि चाह में रोज़ ही मर कर वो देखती थी
नज़्म आराधना राय
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