Skip to main content

मुमकिन ना हुआ

मुमकिन ना हुआ
-----------------------------------------------                        
वो मेरी बात को कभी समझा ना था
वो आईना था मगर दरका हुआ सा

 करुँ क्या बात मैं खुद अपनी ज़ुबाँ से
 किसी कि आस में कब से बैठा हुआ था

 वो मेरा था मगर मुझ से रूठा हुआ था
जाने किस बात ने उसको रोका हुआ था

 परस्तिश कर सकूँ उसको कब हुआ था
 रिश्ता अहसास का जाने क्यों  हुआ था

वो मेरे सामने कभी  यू आया ही नहीं था
निगाहों से करें बातें  मुमकिन ना हुआ था

उसकी मेरी बातें सामने ही कब हो सकी थी
मेरी उसकी हर एक बात पसे दीवार हुई थी  
आराधना राय

-----------------------------------------
दरका -----चटका हुआ ,
पसे दीवार------------- दीवार के पीछे से।
परस्तिश,,,,,,,,,,,,,,सज़दा , झुकना किसी के आगे
Already published in vishwagatha 2015 jun

Comments

Popular posts from this blog

नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना