Skip to main content

चलन


 
बेज़ुबानी भी एक चलन है बस जीने का 
अपनी ही सोच में अपने आप चलने का

धूप थी सख्त पर कोई शज़र ना मिला 
ज़िन्दगी में कोई भी हमसफर ना मिला 

हमने नेकियों पर भी बदी का सिला देखा 
ज़ुल्म सह-सह  कर उन्हें बस हँसते देखा  

माना कल फिर से ये मंज़र बदल जायेगा
कोई ना कोई बादल तो जरूर बरस जायेगा 

आराधना   





 











प्रीत कि अजब दास्ताँ क्या कर  देखी 
घनीभुत पीड़ा में दूसरे कि खशी देखी

हवाओं का रुख कब जाना किसी ने
हर घड़ी बस तुमको आवाज़ दे  दी  


Comments

Popular posts from this blog

नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना