Skip to main content

चलन


 
बेज़ुबानी भी एक चलन है बस जीने का 
अपनी ही सोच में अपने आप चलने का

धूप थी सख्त पर कोई शज़र ना मिला 
ज़िन्दगी में कोई भी हमसफर ना मिला 

हमने नेकियों पर भी बदी का सिला देखा 
ज़ुल्म सह-सह  कर उन्हें बस हँसते देखा  

माना कल फिर से ये मंज़र बदल जायेगा
कोई ना कोई बादल तो जरूर बरस जायेगा 

आराधना   





 











प्रीत कि अजब दास्ताँ क्या कर  देखी 
घनीभुत पीड़ा में दूसरे कि खशी देखी

हवाओं का रुख कब जाना किसी ने
हर घड़ी बस तुमको आवाज़ दे  दी  


Comments

Popular posts from this blog

गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना