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मुक़ाम




साभार गुगल इमेज़

फसल-ए -बहार में ये भी एक मुक़ाम आया है
रास्ता में  देख कर  वो हम  से भी शरमाया  है

उसका  वज़ूद शायद मेरी तलाश में आया है
ख्वाबों में फिर तुझे कहीं कोई फिर भरमाया हैं

रहा यू  वो दूर हमसे क्यों किसे समझ आया है
उसकी ख़ता क्या  कोई समझ भी नहीं पाया  है

किसका ख्याल यहा किसे ढूंढ  कर उसे ले आया है
वक़्त ने इस तरह उसे क्यों किस बात पे रुलाया है


आराधना




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आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना