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फलक





उठे है खाक से हम तो फलक तेरे निशाने पे
उन्हें भी फिक्र क्या अब इस नए फ़साने पे

जुल्म -ए निशा  रहा है तू भी मेरे ठिकाने पे 
 देखे वादिये जां रूकती है अब किस ठिकाने पे

सितम और जुल्म कि रह पे चलने वालो को
बड़ी  नागवारिया गुजरी किसी  मरने वालो पे 

तेरे भी दिल में  कोई खुदा कही तो  रहा होगा
तेरा भी एक कही आशना यू भी तो रहा होगा 

आराधना

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नज़्म

अब मेरे दिल को तेरे किस्से नहीं भाते  कहते है लौट कर गुज़रे जमाने नहीं आते  इक ठहरा हुआ समंदर है तेरी आँखों में  छलक कर उसमे से आबसर नहीं आते  दिल ने जाने कब का धडकना छोड़ दिया है  रात में तेरे हुस्न के अब सपने नहीं आते  कुछ नामो के बीच कट गई मेरी दुनियाँ  अपना हक़ भी अब हम लेने नहीं जाते  आराधना राय 

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

नज़्म

 उम्र के पहले अहसास सा कुछ लगता है वो जो हंस दे तो रात को  दिन लगता है उसकी बातों का नशा आज वही लगता है चिलमनों की कैद में वो  जुदा  सा लगता है उसकी मुट्टी में सुबह बंद है शबनम की तरह फिर भी बेजार जमाना उसे लगता है आराधना