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स्त्री ही स्त्री को नहीं जानती



अपने आप को क्यू नहीं जानती
जंग किससे लड़े क्यू नहीं जानती

दुःख भंजनी ,क्यों  दुःख को  ना हरे
अपने दुखों को ही नहीं क्या जानती

विवाह वेदी अंतिम चिता नहीं बनती
गर हर सास माँ भी बनना जानती

कोई बुढ़ापा गलियों नहीं सिसकता
गर बहु भी कुछ बेटी बनना  जानती

दुहाई  कानूनों को सिर्फ क्यू देती हो
स्वयं को जागृत करना नहीं जानती

लज़्ज़ा से सिर झुकायें स्त्री खड़ी हो
 लाज किसी की ढकना नहीं  जानती

पत्थर जब मारता ये  पुरुष समाज है
साथ मिल कर तुम ताने नहीं मारती

स्त्री ही स्त्री को क्यों फिर नहीं जानती
अपनी श्रेष्ठता स्वयम नहीं पहचानती

आराधना


copyright : Rai Aradhana ©



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गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना