1991 में छपी मेरी कविता
सूर्य
एक सत्य यह सूरज नित्य अस्त होता है
तेज़स्वी होकर भी स्वेर्णाभा खोता है
पूरी रात अँधेरे से लड़ता रहता है
हर प्रात फिर फसल रोशनी कि बोता है
दिन भर श्रम की प्राण -प्रतिष्ठा में रत रहता
कालिख पोँछ रात कि जग का मुँह धोता है।
यौवन आने पर जो प्रखर अग्नि बरसाता
वह भी थक कर ढलता है छिपकर सोता है
सूरज -सा ही जग में सबका यौवन ढलता
व्यर्थ दर्प का भार सूर्य भी कब ढोता है
शाश्वत नियम जगत का है आना और जाना
हर दिन ढल कर भी सूर्य नहीं रोता है
आओ हम सूरज सा करें स्वम को अर्पित
देकर ही पाना जगत का समझौता है।
आराधना
आराधना |
एक सत्य यह सूरज नित्य अस्त होता है
तेज़स्वी होकर भी स्वेर्णाभा खोता है
पूरी रात अँधेरे से लड़ता रहता है
हर प्रात फिर फसल रोशनी कि बोता है
दिन भर श्रम की प्राण -प्रतिष्ठा में रत रहता
कालिख पोँछ रात कि जग का मुँह धोता है।
यौवन आने पर जो प्रखर अग्नि बरसाता
वह भी थक कर ढलता है छिपकर सोता है
सूरज -सा ही जग में सबका यौवन ढलता
व्यर्थ दर्प का भार सूर्य भी कब ढोता है
शाश्वत नियम जगत का है आना और जाना
हर दिन ढल कर भी सूर्य नहीं रोता है
आओ हम सूरज सा करें स्वम को अर्पित
देकर ही पाना जगत का समझौता है।
आराधना
Comments