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1991 में छपी मेरी कविता

1991 में छपी मेरी कविता

आराधना 
सूर्य

एक सत्य यह सूरज नित्य अस्त होता है
तेज़स्वी होकर भी स्वेर्णाभा खोता है

पूरी रात अँधेरे से लड़ता रहता है
हर प्रात फिर फसल रोशनी कि बोता है

दिन भर श्रम की प्राण -प्रतिष्ठा में रत रहता
कालिख पोँछ रात कि जग का मुँह धोता है।

यौवन आने पर जो प्रखर अग्नि बरसाता
वह भी थक कर ढलता है छिपकर सोता है

सूरज -सा ही जग में सबका यौवन ढलता
व्यर्थ दर्प का भार सूर्य भी कब ढोता है

शाश्वत नियम जगत का है आना और जाना
हर दिन ढल कर भी सूर्य नहीं रोता है

आओ हम सूरज सा करें स्वम को अर्पित
देकर ही पाना जगत का समझौता है।
आराधना 

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गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"
आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

नज्म चाँद रात

हाथो पे लिखी हर तहरीर को मिटा रही हूँ अपने हाथों  से तेरी तस्वीर मिटा रही हूँ खुशबु ए हिना से ख़ुद को बहला रही हूँ हिना ए रंग मेरा लहू है ये कहला रही हूँ दहेज़ क्या दूँ उन्हें मैं खुद सुर्ख रूह हो गई चार हर्फ चांदी से मेहर  के किसको दिखला रही हूँ सौगात मिली चाँद रात चाँद अब ना रहेगा साथ खुद से खुद की अना को "अरु" बतला रही हूँ आराधना राय "अरु"