सदियों सदियों जागा है वो ,बिसरी बात सुनाने को
नव प्राचिरो से भी झाँका ,खोई बात बताने को
सुनो यहाँ फिर सब अपना खोता है ,जगाये खंडहर सोता है
वरद स्वयम अपना खोता है ,पल पल खड़ा मौन बस रोता है।
जगाये खण्डहर सोता है
युग -युग तक होकर मौन,अपरिमित गाठों को खोल
वीर सा सजग बन ,चुप चाप सहता है,कुछ ना बोल।
बस अब ये सोता है
स्वप्न जड़ित सिंहासन थे ,या फिर कल्पित आधार
सच जब बट कर खड़ा किया था किसने किया उद्धार।
कुछ ना कहे जग सोता है
जिसने जाना ,उसने माना ,ये खंडहर था या स्वप्न विशाल
अनुत्तरित गाथाओं का आशाओं का,बूझी-अबूझ पहेली सा
मानो हो सुन्दर एक विहान
चित्कारें फूटी थी ,पायल गुंजी थी ,या रोया था इतिहास
क्रंदन था पीड़ाओं का ,पूर्ण -अपूर्ण का मचा हुआ हाहाकार
हर पल सब कुछ खोता है
कितनी गाथाए समेटे ,खुद से खुद कुछ रूठे
कौन जाने किस भार को वहन कर रोता है
जगाये खण्डहर सोता है।
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