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ग़ज़ल ---------



साभार गुगल





   इश्क में किसने कैसा सवाल रखा है
   सिर्फ मजबूरियों को उछाल रखा है

    तुझे पा कर भूल जाना नसीब गर है
     ज़ख़्म खा कर दिल को बहाल रखा है
   
    उसकी रुसवाई मेरी रुसवाई बनी है
   यही कह कर खुद को संभाल रखा है

   बीते लम्हों को दिल से लगा रखा है
   पूछ हमने कैसे तिरा ख्याल रखा है

   रकीब ने घर का रास्ता देख रखा है
 "अरु"  परेशनियों को हमने मोल रखा है
    आराधना राय "अरु"
   मोल--- खरीद
  रकीब ---- दुश्मन

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©