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ज़िंदगी

 साभार गुगल मैं इंसान बन के  क्या जीती अधूरी बची ज़िंदगी उधार क्या देती आये वो दो बूंद बन कर बरस जाये होठ चुप है मगर मैं ख़ामोश नहीं होती राह कैसी भी थी चुपचाप चले वरना ज़िंदगी में तेरे ज़ीने कि वजह क्या होती मेरी मुट्ठी में सीप बंद रही तेरी फितरत यू सराब में अब कहाँ होती आराधना