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गीत वहीं गाते हो

तुम गीत वहीं फिर गाते हो जो उर में आन समाता है उषा कि प्याली में रचे बसे रश्मि का दीप जलाता है, अपराह्न समय भानू वीर अग्नि सा बरस कर जाते है ग्रीष्म ऋतु से हिय में क्यों संताप प्रहार कर के जाते है निशा कि चादर को ओढ़े चंद्र मन ही मन मुस्काता है चपल चाँदनी कि आभा से स्निग्ध् स्नान जग पाता है निंद्रा कि बाहों में जब मंद समीर मन को बहलाता है तारों कि चुनरीया ओढ़े कोई स्वपन नए से दे जाता है गीत मुझे हर दिन ही दिवस रात्रि में भेद बतलाता है जाने वाले थोड़ा रुक जा दिन ही रीता सा जाता है आराधना राय