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गीत वहीं गाते हो







तुम गीत वहीं फिर गाते हो
जो उर में आन समाता है
उषा कि प्याली में रचे बसे
रश्मि का दीप जलाता है,
अपराह्न समय भानू वीर
अग्नि सा बरस कर जाते है
ग्रीष्म ऋतु से हिय में क्यों
संताप प्रहार कर के जाते है
निशा कि चादर को ओढ़े चंद्र
मन ही मन मुस्काता है
चपल चाँदनी कि आभा से
स्निग्ध् स्नान जग पाता है
निंद्रा कि बाहों में जब मंद
समीर मन को बहलाता है
तारों कि चुनरीया ओढ़े कोई
स्वपन नए से दे जाता है
गीत मुझे हर दिन ही दिवस


रात्रि में भेद बतलाता है
जाने वाले थोड़ा रुक जा
दिन ही रीता सा जाता है
आराधना राय








   


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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है