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Showing posts from March 15, 2016

क्या देखते हो

क्या देखते हो ठहरे हुए पानी में क्या देखते हो गुज़रे वक्त की पेशानी पे क्या देखते हो छलक जाती है मेरी आँखे क्यों पोछते हो जुल्म कर जाते हो हर बार मुझ पे चोट को आकर क्या कभी देखते हो दर्द पूछा होता ठहर जाने का मुझ से खो चुकी दरिया की रवानी क्या देखते हो हँस रहा था सारा ही जहान मुझ पर मेरी लाचारी को क्यों तूम देखते हो हँस तो दिए तुम मेरे छाले देख कर आँखों के मेरे जाले देख कर किसलिए कुफ्र रोज़ ढाते हो तुम मंदिर ,  मस्जिद हर रोज़ गिरते हो तुम आराधना राय "अरु"