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क्या देखते हो

क्या देखते हो
ठहरे हुए पानी में क्या देखते हो
गुज़रे वक्त की पेशानी पे क्या देखते हो
छलक जाती है मेरी आँखे क्यों पोछते हो
जुल्म कर जाते हो हर बार मुझ पे
चोट को आकर क्या कभी देखते हो
दर्द पूछा होता ठहर जाने का मुझ से
खो चुकी दरिया की रवानी क्या देखते हो
हँस रहा था सारा ही जहान मुझ पर
मेरी लाचारी को क्यों तूम देखते हो
हँस तो दिए तुम मेरे छाले देख कर
आँखों के मेरे जाले देख कर
किसलिए कुफ्र रोज़ ढाते हो तुम
मंदिर ,  मस्जिद हर रोज़ गिरते हो तुम
आराधना राय "अरु"

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ग़ज़ल

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राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©