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Showing posts from August 10, 2015

चुभन

सलीक़े  से उठे बैठे बुज़ुर्गो की ये सब  हिदायत थी करीने से संभाले घर माँ की उम्र भर ये ताक़ीदें  थी नज़रों  को झुका ही घर से वो बाहर ही निकली थी कोई शीशा था चुभा ऐसा की मेरी जां ही निकली थी लबों पे मुस्कराहट ऐसी कि दिलों को बहलाती थी बड़ी ही कैफियत दे कर ख़ुद को सम्हाल लेती थी न जाने क्यों गुलिस्तां को फिर किसी ने उजाड़ा था माँ के आंसुओ  ने रो कर दिल को फिर सम्हाला था ना मालूम क्यूँ  माशरा ये  दुख्तर को ही यूँ रुलाता है लड़कों को माशरा "अरु " कब  ये सबक़ सिखलाता है आराधना राय "अरु" -------------------------------------------------------------- माशरा- society , समाज़  दुख्तर - girl  , लड़की  चुभन 

गुल

गुलों से ना पूछ तू  यू ही  मुस्कुराने का सबब उन की फ़ितरत ही कुछ ऐसे नसीब की होती है फिज़ा उन से महके बस ये  ख़्वाहिश है उनकी चंद लम्हों में उनकी ये हसरत भी पूरी होती है सबा हँसा कर जाती है ये मालूम है उनको  भी एहसास के लम्हों कि उम्र "अरु " कम होती है आराधना राय  "अरु" Aradhana ©     ----                      ------------------------------------ सबा - breez , हवा