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चुभन





सलीक़े  से उठे बैठे बुज़ुर्गो की ये सब  हिदायत थी
करीने से संभाले घर माँ की उम्र भर ये ताक़ीदें  थी

नज़रों  को झुका ही घर से वो बाहर ही निकली थी
कोई शीशा था चुभा ऐसा की मेरी जां ही निकली थी

लबों पे मुस्कराहट ऐसी कि दिलों को बहलाती थी
बड़ी ही कैफियत दे कर ख़ुद को सम्हाल लेती थी

न जाने क्यों गुलिस्तां को फिर किसी ने उजाड़ा था
माँ के आंसुओ  ने रो कर दिल को फिर सम्हाला था

ना मालूम क्यूँ  माशरा ये  दुख्तर को ही यूँ रुलाता है
लड़कों को माशरा "अरु " कब  ये सबक़ सिखलाता है
आराधना राय "अरु"
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माशरा- society , समाज़ 

दुख्तर - girl  , लड़की 

चुभन 

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©