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ज़िंदगी


 साभार गुगल

मैं इंसान बन के
 क्या जीती
अधूरी बची
ज़िंदगी उधार
क्या देती
आये वो
दो बूंद
बन कर
बरस जाये

होठ चुप है
मगर मैं
ख़ामोश नहीं होती

राह कैसी
भी थी
चुपचाप चले
वरना ज़िंदगी
में तेरे ज़ीने
कि वजह
क्या होती
मेरी मुट्ठी
में सीप
बंद रही
तेरी फितरत
यू सराब में
अब कहाँ होती

आराधना


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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©