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एक नजर मैं भी पाना चाहती हूँ--- गज़ल अपनी पूर कहना चाहती हूँ----------


गीत बन कर लब पे आना चाहती हूँ

मुस्कुरा कर तुझ को पाना चाहती हूँ


चाक दामन कर अपना क्या दिखाऊँ

इश्क़ रब है नहीं आज़माना चाहती हूँ

राज़ ए दिल अपना बताना  चाह्ती हूँ

अश्क तेरे कांधो पर बहाना चाहती हूँ

तेरे आँगन मे दिया अपना जला कर

रोशनी  बन  तिरे घर में आना चाहती हूँ


तेरे सजदे में खुदाया  आकर गिरा हूँ

दुआ बन के लब पे आना चाहती हूँ


सारी दौलत इक तरफ रखकर "अरु"

माँ  के आँसू रोज़  पीना चाहती  हूँ
आराधना राय अरु

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है