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ग़ज़ल--------मुलाकात


    
      साभार गुगल


    तेरी मिरी पहली  मुलाक़ात है
    जिंदगी प्यार कि सौगात है

     कहगे न लब आँखों ने कही
     कुछ कहे अनकहे ज़ज्बात है

     रह गई इन फिजाओ में कहीं
     आधी- अधूरी सी  हर बात है

    बढ़ गयी दुश्वारियाँ मिरी कहीं
    खुद से उलझते हुए ख्यालात है

    चाँद , तारों  की फलक ने कही
     मुड़ के तू  देख कैसी बारात है

    अहले दिल मान जायेगे कहीं
    आज राहों में बिछ रही बिसात है

    दिल को तुझ से निस्बत है "अरु"
    इक नई रिवायत कि शुरुआत है
 आराधना राय "अरु"








    

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©