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देखा कविता


गरज़ कर बादलों को बरसते देखा
सूरज को छिपते आकाश में देखा
 कन्धों से आंचल को उतरते देखा
हया को बेहयाई बना कर भी देखा
दाग़ दामन में कितने लगे ये देखा

माँ, बेटियों कि लाज़ उतरते  देखा
देव तुझे ना आसमां से उतरते देखा
आँसुओं का दर्द ढल पिधलते ही देखा
वेदना  मूक थी क्या किसीने ना देखा

 पिता, पुत्र को सदाचारी बनते हुए देखा
 दुर्योधनों को ना कभी संवारते हुए देखा
पूजते मंदिरों में देवी घंटों तक उन्हें देखा
लाज़ नारी कि  लूट- कभी बिलखते  देखा

"अरु" जीवन को सहन कर जलते  देखा
बाज़ार के खिलोनों की तरह बिकते देखा

आराधना राय "अरु"







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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है