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तुम्हारा


ग़ज़ल
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बे वजह नाम तो मेरा न पुकारा होगा
आपके प्यार का ये एक इशारा होगा

जख्म को मेरे इक तेरा सहारा होगा
अभी भरा है  कभी तो ये  हरा होगा

 दर्द सीने मे उसके भी उठता होगा
  चाँद तन्हा है इक दिन हमारा होगा

 कच्ची मिट्टी के घर मे  गुजारा होगा
 शहर का तुनक मिज़ाज़ ना प्यारा होगा
.
  इन अंधेरों का कोई  तो उजाला होगा
  दर्द सीने का भला किसको गवारा होगा

  माँ का दिल भी दर्द से तड़पा होगा अरु ,
  चोट खा कर जब अश्क उमड़ता होगा

आराधना राय "अरु"


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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है