Skip to main content
कविता तब की जब "अना"नाम से लिखा पर "अना कासिमी से परिचय के बाद जाना की वो भी "अना है तब से मैं "अरु " नाम से लिख रही हूँ
पैमाने और पैमानों के ऊपर कसी गई
जूनून -ए जंग ऐसा की मौत से लड़ गई
कांच के महलों में ,ये दीवानगी हो गई
मेरी कहानी हर दरीचे को पता हो गई
मैं रूह थी मेरा ना कोई मक़ाम रहा
ज़र्रे ज़र्रे , बिखरी और निखर गई
देर से जाना, अपने हिज़र का अंजाम
सुबह होने तक मैं अपनी ज़बा खुद हो गई

क्या कहे "अना" अपनी हम तुमसे
खुद रोई मेरी दास्ता और फना हो गई
आराधना राय "अरु"
Tulika ग़ज़ल ,गीत ,नग्मे ,किस्से कहानियों का संसार

Comments

Popular posts from this blog

कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©