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कविता

कविता
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दुनिया के बाजार में चंदन नहीं बेचा करती हूँ
दीप से तुलसी वदनं किया करती हूँ
तन की ओट में मन का व्यापार नहीं करती हूँ
संबंधों को मन से जीया करती हूँ
आँचल, रौली, मौली का खेल नहीं करती हूँ
पूजा- अर्चना से नमन किया करती हूँ
नारी की अस्मिता का मान किया करती हूँ
अश्रु को पौंछ जीवन जीया करती हूँ
नदियों की धारा अविकल बहा करती हूँ
पत्थरों से निकल आगे राह लिया करती हूँ
अरु" सहज नहीं जीवन जीना अरण्य सा
जीवन में हर गीत नया जी कर हँसती हूँ
आरधना राय "अरु"

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©