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माँ








माँ
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सब को निवाला खिला कर
आप भूखी रह पानी पी कर 
ज़िन्दगी टुकड़ों में बिताती है
रोते बच्चों के लिए हँस जाती है
यौवन अपना होम कर जाती है
रोटी कमाने में पीसी जाती है
साड़ी की गाँठ में बंध जी जाती है
संतान मुख देख सात- फेरों का
दर्द झेल बिखर संवर जाती है
सर्द रातों में कांपते बच्चों का
संबल बन कर जीवन दे जाती है
अमीर हो गरीब माँ - कहलाती है
"अरु" संतान के लिए जगत में
जीवन का जहर हँस के पी जाती है
आराधना राय "अरु"

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है