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शहर होने लगे

शहर होने लगे
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नीम की छाँव तले दिया तुलसी का जले
सूर्ये भी थककर रुके स्वर्णिम साँझ ढले
पाखी का गुंजन उत्सव सा लगने लगे
ह्दय का स्पंदन वीणा कि झंकार लगे
स्वप्न सात रंगों के झिलमिल करने लगे
मुधु- कि मुस्कान से जब फूल झरने लगे
गाँव - मेरे शहर में आकर जब मिलने लगे
दूर- दूर के पाखी मेरे शहर में मिलने लगे
मेरा देश जब गाँव से शहर शहर होने लगे
खेत- खलिहान गाँव के वियावान होने लगे
आराधना राय "अरु"

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है