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शहर होने लगे

शहर होने लगे
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नीम की छाँव तले दिया तुलसी का जले
सूर्ये भी थककर रुके स्वर्णिम साँझ ढले
पाखी का गुंजन उत्सव सा लगने लगे
ह्दय का स्पंदन वीणा कि झंकार लगे
स्वप्न सात रंगों के झिलमिल करने लगे
मुधु- कि मुस्कान से जब फूल झरने लगे
गाँव - मेरे शहर में आकर जब मिलने लगे
दूर- दूर के पाखी मेरे शहर में मिलने लगे
मेरा देश जब गाँव से शहर शहर होने लगे
खेत- खलिहान गाँव के वियावान होने लगे
आराधना राय "अरु"

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आज़ाद नज़्म पेड़ कब मेरा साया बन सके धुप के धर मुझे  विरासत  में मिले आफताब पाने की चाहत में नजाने  कितने ज़ख्म मिले एक तू गर नहीं  होता फर्क किस्मत में भला क्या होता मेरे हिस्से में आँसू थे लिखे तेरे हिस्से में मेहताब मिले एक लिबास डाल के बरसो चले एक दर्द ओढ़ ना जाने कैसे जिए ना दिल होता तो दर्द भी ना होता एक कज़ा लेके हम चलते चले ----- आराधना  राय कज़ा ---- सज़ा -- आफताब -- सूरज ---मेहताब --- चाँद

गीत---- नज़्म

आपकी बातों में जीने का सहारा है राब्ता बातों का हुआ अब दुबारा है अश्क ढले नगमों में किसे गवारा है चाँद तिरे मिलने से रूप को संवारा है आईना बता खुद से कौन सा इशारा है मस्त बहे झोकों में हसीन सा नजारा है अश्कबार आँखों में कौंध रहा शरारा है सिमटी हुई रातों में किसने अब पुकारा है आराधना राय "अरु"

गीत हूँ।

न मैं मनमीत न जग की रीत ना तेरी प्रीत बता फिर कौन हूँ घटा घनघोर मचाये शोर  मन का मोर नाचे सब ओर बता फिर कौन हूँ मैं धरणी धीर भूमि का गीत अम्बर की मीत अदिति का मान  हूँ आराधना