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बारात चली थी

बारात चली थी
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वो हाथों कि मेंहदी दिखाते है
हमारे दिल को क्यू खूँ में नहलाते है
उसकी आंखों में सिर्फ लाली थी
वो किसी और कि हमेशा जो होने वाली थी
सब ने लाल जोड़ें में सजे देखा
उस के दिल के दर्द को किसी ने ना देखा था
तमाम खुशियों कि बारात सजी थी
बड़ी ख़ामोशी से इश्क़ कि अर्थी सजी थी
बडी धूम से डोली उठी थी
किसे पता "अरु " लाचारी लेकर चली थी
कोई युग हो उस में गरीब की बेटी जली
अग्नि-परीक्षा बारम्बार सिया की हुई थी
सोते हुए भारत को कैसे कोई जगाए
रण से लौट कर जो सिपाही ना कभी आए
हजारों सदियों को अपने में लपेटे
नारी क्यों तेरा आँचल हमेशा ही कोई खी
दहेज़ की आंधियाँ घर हर किसी का लुटे
इन्हीं नाकामियोंसे मेरा देश जूझे
आराधना राय "अरु"

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©