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तंज़

तंज़
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वो कहते है बात करना छोड़ दो
आपस में रिश्ता रखना छोड़ दो 
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मंदिर में भगवान को पूज कर
मस्जिद में कुरान पढ़ना छोड़ दो
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तलवार मंदिर को करते हो भेंट
मानवता का पाठ पढ़ना छोड़ दो
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बातें अनर्गल करते है रहे वो खुद
इंसान को इंसान कहना छोड़ दो
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खा रहे जो नेता इंसानो को रोज़
वो कहते है मांस खाना छोड़ दो
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हिन्दू से राम मुस्लिम से अल्ल्हा
धर्म से अब मज़ाक करना छोड़ दो
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धर्म की आड़ में मज़हब के नाम पे
हो रहा आतंकवाद अब तो छोड़ दो
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मेरी धरती है स्वर्ग पनपे हज़ारो धर्म
एक दूसरे पर तीर चलना अब छोड़ दो
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गीता पे अंकुश कुरान पे वार जो करे
ऐसे नेताओं को अख़बार में पढ़ना छोड़ दो
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उठ रहा है नींद से अभी तो सारा संसार
मानवता की बात "अरु" करना ना छोड़ दो
आराधना राय "अरु"

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©