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आहट





तेरे कदमों की आहट पता मेरा क्यों बताती है
चले हो साथ मेरे तो निगाहों में बसें ही रहना

मेरे दिल के आईने मैं रोज़ चमकती ही रहना
कहीं भी धूल मिल जाए तो साफ करते रहना

बहुत आसान है किसी से भी प्यार यूँ कर लेना
 मुश्किल है किसी के गुनाहों को माफ कर देना

मेरी दुनियाँ, तेरी दुनियाँ की बातें पूछते रहना
अजब से कायदें कानूनों की 'अरु ' कैद में रहना  
आराधना राय  'अरु'

नोट - ये नज़्म  मैंने ख़ुद  को एक पुरुष ------आदमी  मान कर  लिखी है 
पता नहीं कितनी क़ामयाब  हुईं हूँ , स्त्री  होकर पुरुष कि भाषा बोलने में 
ये आप बतायेंगे।   

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©