Skip to main content

नज़्म -जंग सरहदों की

नज़्म -जंग सरहदों की 
------------------------------
ज़ख़्म एक माँ ने भी खाया होगा 
दिल उसका भी तो टूटा  ही होगा 
बाप कि रूह भी कांप गई यू होगी 
कंधो पे जब बेटे को उठाया होगा 
किसी के सपने मरे सरहद पे कहीं
कहीं तो  आँख में आँसू आया होगा
शहीद  कह कर ही पुकारेगा ज़माना 
आसमां में कहीं वो मुस्कुराया होगा  
गोलियाँ चलती रहेंगी  सरहदों पे यू 
कोई उनका भी निशाना बनता होगा 
जंग कि कैफ़ियत नहीं होती है कहीं 
जो चलाई गई साध कर ही निशाना 
ऐसी गोलियों का धर्म होता है कहीं 
नहीं ये जानती है हिन्दू , मुसलमान 
इनकी भी सरहदे होती है क्या कहीं 
करुँ किस बात का ज़िक्र तुझसे "अरु "
जंग कैसी भी हो  कोई बेहतरी नहीं होती 
 आराधना राय 
 Rai Aradhana ©

Comments

Popular posts from this blog

कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©