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आतंक




मन ये आतंक का शिकार व्यर्थ सा क्यों अब हो कहीं खो गया
निष्फल हो रही देव साधना और मानव कहीं तिरोहित हो गया

मन  बेचैनी का दर्पण सुख पे रीझा दुःख में कुम्हलाया रीत गया
जाने कौन सी स्मृति का विस्मित सा यू ही अब तो  हरण हो गया

जग बैरी था उसमें जीना व्यवधान सा  दुष्कर यू प्रतीत ही हो गया
उन्मुक्त ह्दय भी बेड़ियों के अधीन क्यों अब व्यथित सा हो गया

भावनाओं के साथ खेलता ये संसार था जीवन जीना यू प्रश्न हो गया
"अरु" साँकल चढ़ा लो दरवाज़ों पे यहाँ अब आतंक का व्यापार हो गया
आराधना राय



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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है