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शहर की बात



शहर की बात
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अब किस शहर की बात हो 
जहाँ सुबह सी कोई रात हो

हर शख़्स ही जहाँ खास हो
अवाम की जहाँ पे बात हो

 ना भूख रोटी को  ढूँढती हो
 कफन ज़िंदगी ना ओढ़ी हो

यूँ इक सरज़मी की बात हो
उजालों पर यूँ ना सवाल हो

जहॉ रोशन हर ज़हन यूँ हो
हर बात पे ना कोई बवाल हो

कोई ख़्वाब हसीन नसीब हो
"अरु" मंज़िले कुछ करीब हो

आराधना राय "अरु"
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कफन -श्राउड, मृत्यु का सामान
सरज़मी- क्षेत्र, देश
अवाम- जनता , पब्लिक
शख़्स- आदमी ,,इंसान

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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©