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प्रयाण


हिमालय की चोटी आवाज़ देती है
रगों में नया सा ये उन्वान देती है
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रातों को जग कर प्रहरी सा वो  अटल रहा
जिसका सीना सदा ही देश के लिए सजा
जिसका लहु गंगा सा बह कर पवित्र हुआ
हे  वीर आर्येवत पर तुम सदा विजित रहो
रण में शौर्य -पताका तुम फहराते ही रहो
देख आसमां से कोई शत्रु फिर से आए ना
कोई चिंगारी दिखा फिर अब भाग पाए ना
सज़ग ,धीरता से अब तुम भी प्रयाण करो
आराधना राय "अरु" 
   



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कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है

ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©