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संधर्ष

  

काले बादल  मन कि धरती पर उथल पुथल मचाते है 
जब नयन में अश्रु से भर स्मृति दीप वो ही जलाते है  
जल -तरंगिणी सी मधुरिम फुहारों में जग लहराते है 
नव -गीत प्राणों के यौवन सा जीवन में वो भर जाते है 
म्लान क्लांत  तू दिनकर  जब हृदय शुभ्र तू पा जाता है  
वेदनाओं से परे रहे वहीं तो  दुःख को भी सह कर जाता है 
जल कि बूंदों से भरा जाल ही मेध रथी कहला भी जाता है 
"अरू " संधर्ष कैसा भी हो जीवन तो ये चलता ही जाता है 
आराधना राय
copyright : Rai Aradhana ©
  

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ग़ज़ल

लगी थी तोमहते उस पर जमाने में एक मुद्दत लगी उसे घर लौट के आने में हम मशगुल थे घर दिया ज़लाने में लग गई आग सारे जमाने में लगेगी सदिया रूठो को मानने में अजब सी बात है ये दिल के फसाने में उम्र गुजरी है एक एक पैसा कमाने में मिट्टी से खुद घर अपना बनाने में आराधना राय 

राहत

ना काबा ना काशी में सकूं मिला दिल को दिल से राहत थी जब विसाल -ए -सनम मिला। ज़िंदगी का कहर झेल कर मिला बीच बाज़ार में खुद को  नीलम कर गया यू  हर आदमी मिला राह में वो इस तरह कोई चाहतों से ना मिला रूह बेकरार रहे कोई "अरु" और वो अब्र ना कभी हमसे यू मिला आराधना राय copyright :  Rai Aradhana  ©
कैसे -कैसे दिन हमने काटे है  अपने रिश्ते खुद हमने छांटे है पाँव में चुभते जाने कितने कांटे है आँखों में अब ख़ाली ख़ाली राते है इस दुनिया में कैसे कैसे नाते है तेरी- मेरी रह गई कितनी बातें है दिल में तूफान छुपाये बैठे है  बिन बोली सी जैसे बरसाते है